लैंप एवं डिब्बी का दौर 1990

 लैंप एवं डिब्बी का दौर। 

लैंप एवं डिब्बी का दौर 1990


1990 के दशक में होश संभालने वाले बच्चों का बचपन शायद ही लैंप एवं डिब्बी के नाम से अछूता रहा हो। हो सकता है अलग अलग स्थान पर इन दोनो ही प्रकाश के स्रोतों को अलग अलग नाम से बुलाया जाता हो, लेकिन उस समय के बच्चों को पढ़ाई करने के लिए ये एक मुख्य स्त्रोत हुआ करते थे। ऐसे पाठकों को जिन्होंने इन दोनो वस्तुओं के बारे मे नही सुना हो, उनके लिए दो चित्र नीचे लगा रहा हूं, एवं इन्ही दोनो चीजों से जुड़ी कुछ खट्टी मीठी बातें इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा हूं। 

उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जिले के छोटे से गांव में, जहां मैं रहता हूं, वहां पर एवं उसके आसपास के गांव में रात के समय, प्रकाश का मुख्य स्त्रोत हुआ करते थे : लालटेन, लैंप एवं डिब्बी। ये तीनों ही इसी क्रम में किसी परिवार की स्मृद्धि को भी दर्शाया करते थे। ज्यादा स्मृद्ध परिवारों के पास लालटेन हुआ करती थी, एवं कुछ परिवार जो लैंप खरीदने को दकियानूसी मानते थे, वो पुरानी कांच की बोतलों का प्रयोग करके डिब्बी बना लिया करते थे। वैसे यहां पर ये भी बताना जरूरी है की अधिकांश परिवारों में दो से तीन लैंप व बाकी अन्य जगहों पर रखने के लिए डिब्बियां हुआ करती थी। पाठकों के लिए ऐसी ही एक पुरानी डिब्बी का फोटो नेट से चुराकर यहां रख रहा हूं। 

यह वो दौर था जब हमारे गांव एवं उसके आसपास के गांव में बिजली एक सप्ताह दिन में आया करती थी एवं एक सप्ताह रात में आया करती थी। किसी भी व्यक्ति को इस बात से किसी तरह की शिकायत नहीं हुआ करती थी। न ही बिजली की अपेक्षा थी एवं न ही वो समय से आती थी। शायद ही किसी बच्चे ने उस दशक में पढ़ाई करने के लिए बिजली का रास्ता देखा हो। 

लैंप एवं डिब्बी के उस जमाने में सबसे पहला संघर्ष शुरू होता था सार्वजनिक वितरण प्रणाली से केरोसिन तेल को लेने से। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को हमारे क्षेत्र में "कोटे" के नाम से जाना जाता है। हर एक गांव में महीने में एक बार कोटे से केरोसिन तेल का वितरण हुआ करता था। केरोसिन तेल को लाने की जिम्मेदारी किसी भी घर में पढ़ाई करने वाले बच्चों की हुआ करती थी। इस समय की प्लास्टिक की कंटेनर के स्थान पर उस समय लोहे के कंटेनर हुआ करते थे। हमारे क्षेत्र में उनको कन्नी कहा जाता है। हर एक परिवार में केरोसिन तेल के लिए तीन से चार कन्नियां रहती थी। इसके अलावा लैंप एवं डिब्बी में बार  बार तेल बदलने की असुविधा से बचने के लिए एक कीप भी रहता था, जिसे खड़ी बोली में फूल कहते थे। 


स्कूल जाने वाले बच्चों को शाम से पहले तक अपनी लैंप एवं डिब्बी में केरोसिन तेल की मात्रा को जांचना होता था एवं कम रहने की दशा में उसको फिर से भरना होता था। अगर किसी दिन इस प्रतिदिन की दिनचर्या से चूक हो जाती थी, तो फिर दादा जी एवं दादी जी की डांट सुननी पड़ती थी। हर घर की यही कहानी रहती थी। 

चिमनी एक दूसरी मुख्य चीज हुआ करती थी। लैंप में जलने वाला कपड़ा बहुत सारा  कार्बन छोड़ता था जो की कांच की चिमनी को लगभग हर रोज काला कर देता था। चिमनी का काला होना, प्रकाश की मात्रा को कम कर देता था। अंधेरा घिरने से पहले एवं लैंप को जलाने से पहले चिमनी को साफ भी किया जाता था। कई बार इसी सफाई के दौरान चिमनी टूट जाया करती थी। घर के बुजुर्ग लोगो से डांट  सुनने के बाद, साइकिल लेकर दूसरे गांव से चिमनी लेने भी शाम होने से पहले तब जाना पड़ता था। 


प्रकाश को एक जगह केंद्रित करने के लिए चिमनी के ऊपर कुछ कागज़ के कपड़े भी पहनाए जाते थे। उनका फोटो मैं कहीं से नही ढूंढ पा रहा हूं।  ये एक देसी जुगाड हुआ करता था। इसकी खोज भी किसी गांव वाले ने शायद करी हो। 

इतना सब करने के बाद,रात को पढ़ाई का दौर शुरू होता था। मोबाइल हुआ नही करता था तो नींद के अलावा दूसरा कोई डिस्टर्बेंस किसी भी बच्चे की जिंदगी में नही था। ज्यादा ही मेहनती बच्चे, रात को 9 या 10 बजे तक पढ़ लिया करते थे। 

लैंप की चिमनी पर अपने बाल जलाना या कागज़ के कुछ टुकड़ों को जलाना जैसे कुछ खेल वैसे खेले जाते थे। 

आज जहां किसी कमरे में एक ट्यूबलाइट के प्रकाश को भी कई लोग कम मानते हैं लैंप एवं डिब्बी में पढ़ी एक पूरी पीढ़ी अचंभित करती है। आज की युवा पीढ़ी शायद ही लैंप की उस जरा सी रोशनी में सहज महसूस करे। इस युवा वर्ग के पास मोबाइल के रूप में बहुत कुछ अपनी मुट्ठी में तो कर लिया है, लेकिन लैंप की चिमनी पर लगाकर चर चर की आवाज में अपने बालों को जलाने का आनन्द शायद ही ये पीढ़ी ले पाए। 

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