जिंदगी बेहतर बनाते है रिश्ते

रिश्ते वही नहीं होते जो घर-परिवार या दोस्तों से जुड़े होते हैं बल्कि जब हम अपने इस दायरे से बाहर निकलते हैं, तो कई ऐेसे रिश्ते भी जुड़ जाते हैं जो बहुत कम समय के लिए हमारी जिंदगी में आते हैं , फिर भी हमारी जिंदगी को  बेहतर बनाने में उनका बड़ा योगदान होता है। 


सोचें यदि ये न होते तो जिंदगी कितनी मुश्किल हो जाती। 


सुख-दुख के हैं हम साथी 
अकेले रहना भारतीयों की फितरत में ही नहीं है।संयुक्त परिवारों का चलन टूटा तो दोस्तों से रिश्ते कायम हुए। घर से दूर कोई बसेरा बनाया तो पड़ोसियों का सहारा मिला।अकेले घर से निकले तो दोस्तों का कारवां जुड़ गया और रहने की समस्या आई तो पी.जी. आंटी से मां का आंचल मिल गया।

घर पर ही रहते हुए अकेलापन सताने लगा तो अपने जैसे लोगों का साथ तलाश कर लिया, मौज-मस्ती के आलम में भी भावनाओं का दामन थाम लिया। मां-बाप की तरह प्यारे, भाई-बहनों की तरह दुलारे ये रिश्ते जिनसे हमारा खून का रिश्ता नहीं होता, ये एक दिन उनसे भी बढ़ कर हो जाते हैं। परिवार तो हमारे दिलों में बसा होता है परंतु ये रिश्ते जिंदगी में शामिल हो जाते हैं और सुख-दुख में अपनों की तरह साथ निभाते हैं। यह हम भारतीय ही तो हैं , चाहे हम कहीं भी रहें वसुधैव कुटुम्बकमकी भावना को दिल से जीते हैं।

एहसास अपनेपन का 

अपना शहर छोड़ कर दूसरे शहर में बसे पति-पत्नी को माहौल में तब तक ही बेगानापन महसूस होता है, जब तक  उनका पड़ोसियों से मेल-मिलाप न हुआ हो। फिर धीरे-धीरे महसूस होने लगता है कि वे अपने घर-परिवार के करीब हैं क्योंकि वक्त पडऩे पर कोई उनके काम आने वाला करीब है। जब आपके बच्चे घर पर अकेले हों, तो पड़ोसी उनका पूरा ख्याल रख सकते हैं। आपकी बीमारी या परेशानी में भी वे आपके साथ होते हैं। ऐसे में भले ही आप शहर छोड़ दें या उनकी बदली हो जाए, अपनेपन की यही महक इसे रिश्ते में बदल दोनों परिवारों को साथ-साथ ताउम्र जोड़े रखती है और अजनबी शहर भी अपना लगने लगता है।

बच्चे सीखते हैं औरों से
आजकल घरों में एक ही बच्चा होने से पेरैंट्स भी चाहते हैं कि वह दुनियादारी उसी ढंग से सीखे जैसे उन्होंने संयुक्त परिवार में रहते हुए सीखी थी। ऐसे में बच्चा पड़ोस के बच्चों के साथ सहजता से शेयरिंग और केयरिंग की भावना सीख जाता है। बच्चा बाहर जा कर ही दूसरे बच्चों से दोस्ती करना, अपने अधिकारों के लिए जागरूक होना और एडजस्टमैंट करना सीखता है।यदि पड़ोस न हो तो ऐसे बच्चे अपने में ही सिमट कर जीते हुए स्वार्थी या अंतर्मुखी बन जाएंगे।

परिवार दोस्ती का
उच्च शिक्षा हासिल करने और करियर के बेहतर अवसरों की तलाश में छोटे शहरों से महानगरों में आने वाले युवाओं को जब अकेलापन महसूस होता है तो वे  दोस्तों का ही एक परिवार  तैयार कर लेते हैं। दो-तीन अजनबी युवा जब एक साथ मिल कर रहते हैं, तो किसी परिवार के सदस्यों की तरह मिल जाते हैं। फिर सांझा खर्च उन्हें किफायती तो बनाता ही है, साथ ही सुरक्षित भी महसूस कराता है।बेगाने शहर में उन्हें अकेलापन नहीं सताता और वे दुख-सुख के साथी बन जाते हैं। कई बार अलग-अलग परिवेश के होने के कारण वे आरंभ में भले ही एक-दूसरे से एडजस्ट न कर पाएं परंतु बाद में तो वे दो-तीन संस्कृतियों को स्वयं में ऐसे समेट लेते हैं कि कौन कहां से होगा, यह कह पाना भी मुश्किल हो जाता है। यही दोस्ती एक दिन इनके परिवारों को भी आपस में जोड़ देती है।

सहारा प्यार का
बुजुर्गों, गृहिणियों या छोटे बच्चों की मांओं द्वारा बनाए गए सोशल क्लब या ग्रुप्स एक-दूसरे के अकेलेपन को बांट कर उन्हें प्यार का सहारा देते हैं। ये लोग मिल कर न केवल अपनी रुचियों पर चर्चा करते हैं बल्कि एक-दूसरे की परेशानी का मिल कर हल भी निकालते हैं। कई तरह की एक्टीविटीज इन्हें तरोताजा बनाए रखने में मदद करती हैं।

पी.जी. आंटी से मां जैसा रिश्ता
दूसरे शहर में अकेले रहना युवतियों को सुरक्षित नहीं लगता तो वे कहीं पी.जी. के रूप में रहने लगती हैं। ऐसे में पी.जी. आंटी से मां जैसा प्यारा रिश्ता बन जाए तो हैरत की बात नहीं। इसमें उन्हें एक भावनात्मक सुरक्षा मिलती है तथा देर हो जाने पर उन्हें पता होता है कि कोई उनकी चिंता कर रहा होगा। उन्हें छोड़ कर आने के बाद भी पी.जी. आंटी से फोन पर खैर-खबर पूछने का एक रिश्ता हमेशा बना रहता है।

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