गाँव ,क़स्बा या छोटे शहर में रहने वाले लोग अक्सर बड़े शहरों में बेहतर भविष्य तलाशते हैं फिर चाहे वो शिक्षा हो या उनका काम ...



सकरी गलियों के बीच बने मकान का छोटा सा कमरा या गगनचुम्बी इमारतों के अन्दर बसा छोटा सा संसार ...जहाँ रखी हर चीज, जगह के आभाव में बोझ सी लगती है, बोझ इसलिए, क्यूँकी कमरे का हर कोना मेहनत की कमाई से किराये पर लिया है...सैलरी बढ़ेगी तो कमरा भी बढ़ेगा ... और ज्यादा बढ़ेगी ...तो खर्चों में कटौती कर बड़े शहर में अपना भी छोटा सा आशियाना हो जायेगा ... कम से कम हर महीने के किराये की किल्लत से छुटकारा मिलेगा ...पर उस वक़्त सिर्फ किराये का वो कमरा ही तो जरूरतों में शामिल नहीं होता !!! जरूरतें और भी होती हैं..खाना, पानी , बिजली,कपड़ा ,दूर बसा पूरा परिवार, कुछ दोस्त और भी बहुत कुछ !!! सबको संभालना है ... सब कुछ देखना है """ !!!! दिमाग के किसी कोने में ये सब चीजे लेकर बैठता है एक नौकरीपेशा इन्सान ...

खासकर वो ,जो घर परिवार छोड़कर आ जाता है दौड़ती ,भागती ज़िन्दगी वाले शहर में ... जहाँ हफ्ते के 6 दिन ऑफिस की चार दीवारों में सिमट जाते हैं ... और 1 दिन बिखरे पड़े कमरे और खुद को सँभालने में ... :-)
गाँव ,क़स्बा या छोटे शहर में रहने वाले लोग अक्सर बड़े शहरों में बेहतर भविष्य तलाशते हैं फिर चाहे वो शिक्षा हो या उनका काम ... 
शुरुवात हमेशा किराये वाले घर से होती है ... ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों के सामने हमें अपना बड़ा सा गाँव वाला घर छोटा लगने लगता है लेकिन बस तब तक, जब तक हम किराये के कमरे में रहना महसूस नहीं करते ... बीतते दिन के साथ घर का हर कोना याद आता है और अक्सर भड़ास ये कहकर निकलती है कि " इस कमरे से बड़ा तो मेरे घर का बाथरूम है " खैर ... कुछ भी हो ... आपकी भड़ास उसी कमरे की दीवारों से टकराकर आप तक लौट आती है ... कोई नहीं सुनता ... किरायेदार सुनाते नहीं सुनते हैं ;) और किराये के कमरे को "घर जैसा माहौल" देने की सोचना भी सजा होता है ... " बंदिशों वाले ये दिन " सही मायने में हमें चीजों को व्यवस्थित करना सिखा देते हैं ... और एक कमरे में " किचन ,ड्राइंग रूम ,स्टोर रूम,स्टडी रूम सिमट जाता है :-) 
लेकिन !!!
कितना कुछ पीछे छूट जाता है बेहतर ज़िन्दगी की तलाश में !!! कुछ बन जाने का ज़ज्बा लिए
नौकरी के लिए घर छोड़कर शहर में बस जाना भावात्मक द्रष्टि से बहुत कुछ छीन लेता है ... कौन चाहता है फैला पसरा घर छोड़कर सकुचा सा कमरा !! 
कौन चाहता है परिवार को सिर्फ फ़ोन तक सीमित रखना !!! 
कौन चाहता है सिर्फ त्योहारों की छुट्टी पर ही घर जाने का सिमटना , 
कौन चाहता है थकावट भरी ज़िन्दगी !!! 
कोई नहीं चाहता ... 
पर छोटे शहरों में साधनों का आभाव ,आपकी जरूरतें और कुछ करने का ज़ज्बा ना चाहते हुए भी घर से रुखसत करा ही देते हैं ...!!!

"गांव को गांव ही रहने दो शहर मत बनाओ गांव मे रहोगे तो पिता के नाम से जाने जाओगे और शहर में रहोगे तो मकान से पहचाने जोओ"गे !!

ग्रामीण जीवन का तो आनंद ही निराला एवम अद्भुत है जिसको इसका अनुभव नहीं वे इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।

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