भोजन करने के 10 आयुर्वेदिक नियम
भोजन करने के 10 आयुर्वेदिक नियम
भारत के परिवारों की रसोई में आयुर्वेदिक ज्ञान का प्रयोग व प्रभाव आज भी स्पष्ट परिलक्षित है। जिस प्रकार आयुर्वेदोक्त खाद्य पदार्थों पर आधुनिक काल में हुई शोध के निष्कर्ष आयुर्वेदोक्त द्रव्यों की उपयोगिता सिद्ध करते हैं, उसी प्रकार भोजन के विधि-विधान भी उपयोगी हैं। हालाँकि भोजन ग्रहण करते समय ध्यान में रखे जाने नियमों या प्रोटोकॉल पर ठोस शोध होना चाहिये, परन्तु अनुभवजन्य ज्ञान से इन सिद्धांतों की पुष्टि हुई है। आयुर्वेद में दर्शित भोजन के सुस्पष्ट नियम, निहित तर्क एवं पालन न करने से होने वाली समस्याओं का वर्णन आज भी यथावत उपयोगी है। वैश्विक स्तर पर भारी वैज्ञानिक शोध के बाद भी महर्षि चरक की आहार-विधि या नियमों में एक भी नियम ऐसा नहीं है जिसे आधुनिक वैज्ञानिक शोध के द्वारा नकारा या बदला गया हो। इन नियमों को संक्षेप में समझना व दैनिक-जीवन में उपयोग करना आवश्यक है। संहिताओं, आयुर्वेदाचार्यों के अनुभवजन्य ज्ञान एवं वैज्ञानिक शोध पर आधारित यह चर्चा स्वस्थ व्यक्ति व रोगी दोनों के लिये ही लाभकारी है।
1. उष्णाहार सिद्धांत या गर्मागर्म भोजन का सिद्धांत उष्णमश्नीयात्। उष्ण आहार लेना चाहिये क्योंकि यह स्वादिष्ट, भूख बढ़ाने व शीघ्र पचने वाला, वायु का अनुलोमन, कफ दोष में कमी लाता है। हाँ, उष्ण से अर्थ बहुत गर्म नहीं बल्कि ताजा भोजन है। बहुत गर्म भोजन से मद, दाह, प्यास, बल-हानि, चक्कर आना व पित्त-विकार उत्पन्न होते हैं।
2. स्निग्धाहार सिद्धांत या स्निग्ध भोजन का सिद्धांत स्निग्धमश्नीयात्। स्निग्ध भोजन करना चाहिये। यह स्वादिष्ट, स्वाद बढ़ाने वाला, अग्निदीपक, शीघ्र पचने वाला, वायु अनुलोमन करने वाला, चय-पचय, शरीर को दृढ़ करने वाला, बलवृद्धिकारी व व्याधिक्षमत्वकारी, वर्ण साफ करने वाला होता है। स्निग्ध आहार में गाय का घी हो तो उत्तम है, परन्तु स्निग्ध का मतलब घी में डूबे हुये तरमाल के रूप में न लिया जाये। बहुत अधिक स्निग्ध भोजन कफ, लार, दिल में बोझ, आलस्य व अरुचि उत्पन्न करता है।
3. मात्रापूर्वक भोजन का सिद्धांत या ठूँस-ठूँस कर न खाने का सिद्धांत मात्रावदश्नीयात्। तात्पर्य यह कि भोजन सही मात्रा में ही करना चाहिये। यह त्रिदोषों को पीड़ित किये बिना आयु में वृद्धि करता है। आराम से पच कर गुदा तक पहुँच जाता है। अग्नि या पाचन-शक्ति को नष्ट नहीं करता, बिना दिक्कत पच जाता है। इसीलिये समुचित मात्रा में, न कम न अधिक, भोजन करना चाहिये।
4. पाचनोपरांत भोजन का सिद्धांत या खाया-पिया पचाकर खाने का सिद्धांत : जीर्णेऽश्नीयात्। पूर्व में ग्रहण किये भोजन के जीर्ण होने या पच जाने के बाद भोजन करना चाहिये। अन्यथा पचा-अपचा भोजन आपस में मिलने से सभी दोष प्रकुपित हो जाते हैं। खाया-पिया पचाकर खाने से अर्थात दोषों के अपने स्थान पर होने पर, अग्नि प्रदीप्त होने पर, भूख लगाने पर, स्रोतस खुले होने पर, शुद्ध डकार आने पर, हृदय निर्मल होने पर, वातानुलोमन होने पर, मूत्र-मल का आराम से उत्सर्जन होने पर ग्रहण किया गया आहार धातुओं को दूषित किये बिना उम्र को बढ़ाता है।
5. वीर्य-विरुद्धाहार-निषेध सिद्धांत या गड्ड-मड्ड भोजन से बचने का सिद्धांत : वीर्याविरुद्धमश्नीयात्। वीर्य-विरुद्ध योग वाला नहीं करना चाहिये। विरुद्ध वीर्य वाले खाद्य-पदार्थों को आपस में मिलाकर नहीं खाना चाहिये। इस विषय पर अपने आयुर्वेदाचार्य से सलाह लेना उपयोगी रहेगा।
6. इष्ट-स्थान-उपकरण सिद्धांत या मनपसंद स्थल व साज़-सामान का सिद्धांत : इष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं चाश्नीयात्। मन के अनुकूल स्थान और सामग्री के साथ भोजन करना चाहिये, इससे अप्रिय स्थल पर भोजन करने से होने वाली मानसिक पीड़ा नहीं होती। अभीष्ट सामग्री के साथ भोजन करने से मन अच्छा रहता है।
7. अतिशीघ्र-भोजन-निषेध सिद्धांत या भगदड़-विहीन भोजन का सिद्धांत : नातिद्रुतमश्नीयात्। अत्यधिक जल्दबाज़ी में भोजन नहीं करना चाहिये। अन्यथा पाचन बिगड़ जाता है और आहार के उत्तम गुणों का लाभ नहीं मिलता।
8. अति-विलंबित-भोजन-निषेध सिद्धांत या बहुत धीरे-धीरे भोजन न करने का सिद्धांत : नातिविलम्बितमश्नीयात्। अत्यंत विलम्बपूर्वक भोजन नहीं करना चाहिये। भोजन करने में तृप्ति नहीं मिलती, सम्यक मात्रा से अधिक भोजन हो जाता है, भोजन ठंडा हो जाता है, और पाचन विषम हो जाता है।
9. बातचीत-हंसी-निषेध सिद्धांत या बकवास व हँसी-ठट्ठा से मुक्त तन्मयतापूर्वक भोजन का सिद्धांत : अजल्पन्नहसन् तन्मना भुञ्जीत। तन्मयतापूर्वक भोजन करना वस्तुतः संपूर्ण आहार-विधि-विधान को ध्यान में रखते हुये कहा गया है। इसके बिना आहार ग्रहण करने के सिद्धान्तों का पालन संभव नहीं है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, लज्जा, गर्व, उद्वेग, भय, चिंता, दीनता, द्वेष आदि की अवस्था में आहार लेने से रस का पूर्ण परिपाक नहीं हो पाता। यही व्याधियों का मुख्य कारण है। भोजन और तन्मयता का संबंध इतना प्रगाढ़ है कि भोजन के संबंध में आयुर्वेद में दी गई सम्पूर्ण सलाह निरर्थक जा सकती है, यदि भोजन तन्मयता के साथ न किया जाये।
10. आत्मसमीक्षात्मक सिद्धांत या आगा-पीछा सोच कर खाने का सिद्धांत : आत्मानमभिसमीक्ष्य भुञ्जीत सम्यक्। पूर्ण रूप से स्वयं की समीक्षा कर भोजन करना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि शरीर के लिये हितकारी और अहितकारी, सुखकर और दुःखकर द्रव्यों, उर शरीर के परिप्रेक्ष्य में दव्यों के गुण-धर्म आदि का ध्यान रखते हुये ही भोजन करने का लाभ है।
इन सिद्धांतों या नियमों के प्रमाणीकरण का एक महत्वपूर्ण स्रोत आयुर्वेदाचार्यों का अनुभवजन्य ज्ञान है। भोजन ग्रहण करने के नियमों पर लगभग 1200 आयुर्वेदाचार्यों में से रेण्डम सैम्पल के आधार पर चयनित 120 आयुर्वेदाचार्यों को एक लघु प्रश्नावली भेजी गई। चयनित आयुर्वेदाचार्यों का चिकित्सकीय अनुभव 7 वर्ष से 42 वर्ष के मध्य का था। दुनियाभर में वैज्ञानिकों के मध्य स्वीकार्य लिकर्ट-स्केल पर सिद्धांतों से सहमति की तीव्रता को नापा गया। इसमें दृढ़-असहमति, असहमति, न-सहमति-न-असहमति, सहमति, दृढ़-सहमति के स्केल पर जानकारी ली गई। निष्कर्षों यह मिला कि भोजन के आयुर्वेदिक सिद्धांतों की समकालीन उपयोगिता पर सबकी दृढ़-सहमति है। दूसरा निष्कर्ष यह रहा कि इन सिद्धांतों में सभी उपयोगी हैं, परंतु तीन इतने महत्वपूर्ण हैं कि उनके साथ किसी कीमत पर कदापि समझौता नहीं किया जा सकता: पूर्व में किये गये भोजन के जीर्ण होने (पच जाने) पर ही भोजन करना, समुचित मात्रा में भोजन करना, तथा तन्मयतापूर्वक भोजन करना। तीसरा निष्कर्ष यह रहा कि उम्र-आधारित रोग-जनन का मुख्य कारण भोजन के नियमों के साथ समझौता है। निष्कर्ष और भी हैं पर यहाँ आज संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त है कि हम इन नियमों के पालन से स्वयं को स्वस्थ रख सकते हैं।
आहार विज्ञान पर लिखे गये लगभग 3000 शोधपत्रों में आयुर्वेद शब्द का सन्दर्भ है, परंतु प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में आयुर्वेदोक्त आहार पर 50 से भी कम शोधपत्र प्रकाशित हुये हैं। इन अध्ययनों का संदेश यह है कि भोजन के सिद्धान्त (प्रिंसिपल्स ऑफ ईटिंग) साइंटिफिक कसौटी में खरे उतरते हैं। यदि भोजन-शरीर-मन-पर्यावरण के अंतर्संबंध को सम्हाल लिया जाये तो अस्वास्थ्यकर दुष्प्रभावों से बचाव संभव है। उदाहरण के लिये, तनाव-जनित अपक्षयी तथा गैरसंचारी रोग जैसे कैंसर, मधुमेह, उच्च-रक्तचाप आदि की समस्या से विश्व जूझ रहा है। रोजमर्रा का तनाव कम करने में खाद्य-पदार्थों के चयन एवं भोजन के सिद्धान्तों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करना और व्यवहार में लाना आवश्यक है। जो आयुर्वेदाचार्य रस, द्रव्य अर्थात आहार व औषधि, दोष, विकार, स्थान व समय आदि के हमारे शरीर पर प्रभाव को समझते हैं, उनकी मदद से वैयक्तिक आहार का निर्धारण कराना उपयोगी रहेगा।