रामावतार शर्मा जी का वक्तव्य
"नाना के घर आए हो, खाली हाथ कैसे जाओगे?"
ये शब्द महज़ स्नेह या लोक व्यवहार नहीं हैं! ये समाजशास्त्र या मानसशास्त्र को साधने की कला का उदाहरण भी नहीं हैं!
ये शब्द धर्म का प्राण हैं। भारत की आत्मा हैं!
आज से साढ़े पाँच वर्ष पहले सुने थे, तब से ओस की बूंदें बनकर हृदय को सींचते आए हैं... ये शब्द!
2012 की सर्दियाँ थीं। नई दिल्ली में आयोजित IBTL भारत संवाद प्रारंभ हुआ। (आदरणीय): श्रीमति निर्मला सीतारमण, डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी, श्री महेश गिरी, श्री शेषाद्रि चारी, श्रीमति मीनाक्षी लेखी इत्यादि नामों से पहले एक अपरिचित सज्जन मंच पर आए... रामअवतार शर्मा जी।
साइकल से सीता-राम-लक्ष्मण के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए अयोध्या से रामेश्वरम् और जनकपुर तक यात्रा कर आए थे।
उन्होंने गाथा बताई.. कैसे राह भर के वनवासी श्री राम के विषय में यूँ बात करते मानों कुछ समय पहले ही राम वहाँ से होकर गए हों!
जनकपुर के विषय में एक सुंदर घटना कही। उन्हीं के शब्दों में:
"जनकपुर का जो मंदिर है.. उसके महंत जी के पास मैं गया। उन्होंने मुझे रिश्तेदार की तरह रखा। अनजान आदमी को! जब मैं चलने लगा, उन्होंने मुझे एक लिफाफा दिया। मैंने सोचा, बाबा ने भभूत दी होगी! फिर मैंने बेईमानी से खोलकर देखा तो उसमें 100 रुपए का नोट था !!! मैंने पूछा: बाबा मैं तो गृहस्थ हूँ, मेरी दाल रोटी चल रही है.. आप महात्मा होकर मुझे पैसे क्यों देते हैं? बाबा बोले- सीता को क्या मानते हो? मैंने कहा- सीता हमारी माँ है। तो वो बड़े गर्व से बोले-सीता मेरी बेटी है। और तुम नाना के घर आए हो, खाली हाथ जाओगे क्या? " _________ मुझे याद है... यह सुनकर सबकी आँखें जगमगा उठी थीं। भावों ने अश्रुओं का रूप धर लिया था! अक्सर बाऊ 'जन दर्शन' कराते हुए कहते थे... "लोक इतनी श्रद्धा और ऊर्जा कहाँ से पाता है? यह जीवट कहाँ से आता है? वह शक्ति क्या है? उस स्रोत को खोजो!" लगा कि जैसे 'स्रोत' का पता मिल गया है! मैंने पलटकर बाऊ को देखा.. उनकी भी आँखें नम थीं। यही शक्ति है जो सनातन को सनातन रखे हुए है। सुबह सकारे कॉलोनी में झाड़ू देती, कचरा उठाती काकी को यदि मेरा " राम-राम सा। कैसे हैं ?" सुनाई ना दे तो फट से ताना मिल जाता है। उन्हें और मुझे मेरा राम जोड़ता है। सीताराम का चित्र अपने गल्ले पर लगाकर जूते सिलते बाऊजी सनातन को संबल देते हैं।
सीताराम के नाम पर बड़े-बड़े धनिक श्रेष्ठी , जातरुओं की सेवा को नंगे पाँव दौड़ जाते हैं। उनमें और जातरुओं में धन, जाति, पद, परिचय का संबंध नहीं है.. पर सब सीताराम के बेटे-बेटी हैं। आदरणीय गिरधारी लाल गोयल जी जब नमो को उलाहना देते हैं : "चार साल से पापाजी का तो मुंह तक नहीं देखा ,अब जेब खर्च के लिए नानी की गुल्लक पर निगाह गढ़ा के चल दिए ननसाल? हुँह!" तब मुझे यही सम्बन्ध सूत्र नज़र आता है।
:) इसका एक और उदाहरण राम अवतार जी ने दिया था। 1947 से पहले तक जनकपुर से अयोध्या प्रशासन को कुछ राशि भेजी जाती थी जो राजा जनक द्वारा अयोध्या को उपहार में दी भूमि से मिलती थी। सहस्त्राब्दियों की इस परंपरा को 47 के बाद बंद कर दिया भारत सरकार ने।
दो देशों के मध्य रिश्तेदारी का मान खत्म कर दिया! जब कम्युनिस्ट चीन उत्तर-पूर्वी भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए बौद्ध प्रतीकों को अस्त्र बना रहा था, हम अपने रक्त संबंध भुलाकर 'सेक्युलर स्टेट' होने का प्रदर्शन कर अपनों को खो रहे थे। मध्यांतर में खोया वह सम्बन्ध सूत्र आज पुनः मिला है।
भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री को संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण पूर्व व महासागरीय देशों जैसे कंबोडिया, वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, सिंगापुर इत्यादि को जोड़ने वाले इस धागे का पता है। जब वह नेपाल के प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद शर्मा ओली को 'मेरे भाईसाहब' कहते हैं तो सम्बंध केवल संयोग से भौगोलिक पड़ोसी होने का नहीं रह जाता, 'नाना का घर' और 'बेटी का ससुराल' वाला हो जाता है। इसी से सनातन भारत का अस्तित्व अखंड है ।
बाकी विदेश मंत्रालयों के मध्य खींचातानी का क्या है,वह तो चलती रहती है। इंसानों की खींची लकीरें बनती और मिटती रहती हैं। श्री सीताराम नाम सेतु है। जो समझ गया सो जुड़ जाएगा, जोड़ लेगा। बस अब अयोध्या में भव्य मंदिर की प्रतीक्षा है। जयतु श्री सीता राम।
ये शब्द महज़ स्नेह या लोक व्यवहार नहीं हैं! ये समाजशास्त्र या मानसशास्त्र को साधने की कला का उदाहरण भी नहीं हैं!
ये शब्द धर्म का प्राण हैं। भारत की आत्मा हैं!
आज से साढ़े पाँच वर्ष पहले सुने थे, तब से ओस की बूंदें बनकर हृदय को सींचते आए हैं... ये शब्द!
2012 की सर्दियाँ थीं। नई दिल्ली में आयोजित IBTL भारत संवाद प्रारंभ हुआ। (आदरणीय): श्रीमति निर्मला सीतारमण, डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी, श्री महेश गिरी, श्री शेषाद्रि चारी, श्रीमति मीनाक्षी लेखी इत्यादि नामों से पहले एक अपरिचित सज्जन मंच पर आए... रामअवतार शर्मा जी।
साइकल से सीता-राम-लक्ष्मण के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए अयोध्या से रामेश्वरम् और जनकपुर तक यात्रा कर आए थे।
उन्होंने गाथा बताई.. कैसे राह भर के वनवासी श्री राम के विषय में यूँ बात करते मानों कुछ समय पहले ही राम वहाँ से होकर गए हों!
जनकपुर के विषय में एक सुंदर घटना कही। उन्हीं के शब्दों में:
"जनकपुर का जो मंदिर है.. उसके महंत जी के पास मैं गया। उन्होंने मुझे रिश्तेदार की तरह रखा। अनजान आदमी को! जब मैं चलने लगा, उन्होंने मुझे एक लिफाफा दिया। मैंने सोचा, बाबा ने भभूत दी होगी! फिर मैंने बेईमानी से खोलकर देखा तो उसमें 100 रुपए का नोट था !!! मैंने पूछा: बाबा मैं तो गृहस्थ हूँ, मेरी दाल रोटी चल रही है.. आप महात्मा होकर मुझे पैसे क्यों देते हैं? बाबा बोले- सीता को क्या मानते हो? मैंने कहा- सीता हमारी माँ है। तो वो बड़े गर्व से बोले-सीता मेरी बेटी है। और तुम नाना के घर आए हो, खाली हाथ जाओगे क्या? " _________ मुझे याद है... यह सुनकर सबकी आँखें जगमगा उठी थीं। भावों ने अश्रुओं का रूप धर लिया था! अक्सर बाऊ 'जन दर्शन' कराते हुए कहते थे... "लोक इतनी श्रद्धा और ऊर्जा कहाँ से पाता है? यह जीवट कहाँ से आता है? वह शक्ति क्या है? उस स्रोत को खोजो!" लगा कि जैसे 'स्रोत' का पता मिल गया है! मैंने पलटकर बाऊ को देखा.. उनकी भी आँखें नम थीं। यही शक्ति है जो सनातन को सनातन रखे हुए है। सुबह सकारे कॉलोनी में झाड़ू देती, कचरा उठाती काकी को यदि मेरा " राम-राम सा। कैसे हैं ?" सुनाई ना दे तो फट से ताना मिल जाता है। उन्हें और मुझे मेरा राम जोड़ता है। सीताराम का चित्र अपने गल्ले पर लगाकर जूते सिलते बाऊजी सनातन को संबल देते हैं।
सीताराम के नाम पर बड़े-बड़े धनिक श्रेष्ठी , जातरुओं की सेवा को नंगे पाँव दौड़ जाते हैं। उनमें और जातरुओं में धन, जाति, पद, परिचय का संबंध नहीं है.. पर सब सीताराम के बेटे-बेटी हैं। आदरणीय गिरधारी लाल गोयल जी जब नमो को उलाहना देते हैं : "चार साल से पापाजी का तो मुंह तक नहीं देखा ,अब जेब खर्च के लिए नानी की गुल्लक पर निगाह गढ़ा के चल दिए ननसाल? हुँह!" तब मुझे यही सम्बन्ध सूत्र नज़र आता है।
:) इसका एक और उदाहरण राम अवतार जी ने दिया था। 1947 से पहले तक जनकपुर से अयोध्या प्रशासन को कुछ राशि भेजी जाती थी जो राजा जनक द्वारा अयोध्या को उपहार में दी भूमि से मिलती थी। सहस्त्राब्दियों की इस परंपरा को 47 के बाद बंद कर दिया भारत सरकार ने।
दो देशों के मध्य रिश्तेदारी का मान खत्म कर दिया! जब कम्युनिस्ट चीन उत्तर-पूर्वी भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए बौद्ध प्रतीकों को अस्त्र बना रहा था, हम अपने रक्त संबंध भुलाकर 'सेक्युलर स्टेट' होने का प्रदर्शन कर अपनों को खो रहे थे। मध्यांतर में खोया वह सम्बन्ध सूत्र आज पुनः मिला है।
भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री को संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण पूर्व व महासागरीय देशों जैसे कंबोडिया, वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, सिंगापुर इत्यादि को जोड़ने वाले इस धागे का पता है। जब वह नेपाल के प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद शर्मा ओली को 'मेरे भाईसाहब' कहते हैं तो सम्बंध केवल संयोग से भौगोलिक पड़ोसी होने का नहीं रह जाता, 'नाना का घर' और 'बेटी का ससुराल' वाला हो जाता है। इसी से सनातन भारत का अस्तित्व अखंड है ।
बाकी विदेश मंत्रालयों के मध्य खींचातानी का क्या है,वह तो चलती रहती है। इंसानों की खींची लकीरें बनती और मिटती रहती हैं। श्री सीताराम नाम सेतु है। जो समझ गया सो जुड़ जाएगा, जोड़ लेगा। बस अब अयोध्या में भव्य मंदिर की प्रतीक्षा है। जयतु श्री सीता राम।