एक छोटी सी कहानी अरबी शेख की
एक छोटी सी कहानी अरबी शेख और उसके ऊंट की भी होती है। अक्सर ये नीति की शिक्षा देने के लिए सुनाई पढ़ाई जाती है तो संभावना है कि आपने भी सुनी ही होगी। किस्सा कुछ यूँ है कि रेगिस्तान में दिन में गर्मी तो होती ही है, रातों को ठण्ड भी काफी बढ़ जाती है। ऐसी ही एक सर्द रात में अरबी जब अपने तम्बू में था तो उसके ऊंट ने गर्दन अन्दर घुसाई।
उसने मालिक से कहा, हुज़ूर ठण्ड बहुत है, मैं अपना सर तम्बू में रख लूं क्या ? मालिक राज़ी हो गया। थोड़ी देर में ऊंट फिर बोला, ठण्ड तो अब भी लग रही है, अपने अगले दोनों पाँव अन्दर कर लूं ? मालिक फिर राज़ी हो गया। इसी तरह करते करते पीठ और फिर पूरा ऊंट ही तम्बू में आ गया। तम्बू छोटा था और ऊंट बड़ा सा, तो मालिक और ऊंट दोनों के लिए जगह अब कम पड़ने लगी।
दोनों एक दुसरे को धक्का देते अन्दर ही रहने की कोशिश करने लगे। अब बड़ा सा ऊंट कहाँ और आदमी की बिसात क्या ? धक्का मुक्की में अरबी हो गया तम्बू के बाहर और ऊंट आराम से तम्बू में बैठा रहा। ठण्ड से ठिठुरते इस अरबी शेख की कहानी अक्सर इसलिए सुनाई जाती है, ताकि लोगों को याद रहे कि जरुरत से ज्यादा अतिथि परायणता का नतीजा क्या होता है। उधर भारत में “अतिथि देवो भवः” सिखाने पर तुले होते हैं।
ऐसे ही अतिथि सत्कार का नतीजा है कि कोई आपके घर आता है और यहीं आपकी पूज्य गाय को खा जाना चाहता है। इसे अपना अधिकार बताते हुए वो बीफ फेस्टिवल भी मनाना चाहता है। अपने मुल्कों में किसी धर्म का मंदिर बनाने पर पाबन्दी भले रहे, लेकिन यहाँ उसे धर्म परिवर्तन की आजादी को संवैधानिक अधिकार घोषित करना होता है। ये वही अतिथि सत्कार है जिस से असम ने हाल में मना किया है और अब बांग्लादेशियों को वापिस भेजने का आदेश देने वाले जज पर, इन “अतिथियों” के पैरोकार “वकील” ही हमला कर देते हैं ?
बाकी जब तक ऐसा अतिथि सत्कार जारी है, तब तक बीच दिल्ली में आपकी छाती पर डॉ. नारंग भी होगा, और ई-रिक्शा चालाक रविन्द्र सफाई की सलाह पर मारा भी जाएगा। हाँ कहीं “अतिथियों” की भावना बेन को ठेस ना पहुंचे इसलिए आप अपराधियों का मजहब नहीं होता का जाप भी जरूर कीजिये। सुनना अच्छा लगता है, “अतिथि देवो भवः” !
Image credit thedailymash |
दोनों एक दुसरे को धक्का देते अन्दर ही रहने की कोशिश करने लगे। अब बड़ा सा ऊंट कहाँ और आदमी की बिसात क्या ? धक्का मुक्की में अरबी हो गया तम्बू के बाहर और ऊंट आराम से तम्बू में बैठा रहा। ठण्ड से ठिठुरते इस अरबी शेख की कहानी अक्सर इसलिए सुनाई जाती है, ताकि लोगों को याद रहे कि जरुरत से ज्यादा अतिथि परायणता का नतीजा क्या होता है। उधर भारत में “अतिथि देवो भवः” सिखाने पर तुले होते हैं।
ऐसे ही अतिथि सत्कार का नतीजा है कि कोई आपके घर आता है और यहीं आपकी पूज्य गाय को खा जाना चाहता है। इसे अपना अधिकार बताते हुए वो बीफ फेस्टिवल भी मनाना चाहता है। अपने मुल्कों में किसी धर्म का मंदिर बनाने पर पाबन्दी भले रहे, लेकिन यहाँ उसे धर्म परिवर्तन की आजादी को संवैधानिक अधिकार घोषित करना होता है। ये वही अतिथि सत्कार है जिस से असम ने हाल में मना किया है और अब बांग्लादेशियों को वापिस भेजने का आदेश देने वाले जज पर, इन “अतिथियों” के पैरोकार “वकील” ही हमला कर देते हैं ?
बाकी जब तक ऐसा अतिथि सत्कार जारी है, तब तक बीच दिल्ली में आपकी छाती पर डॉ. नारंग भी होगा, और ई-रिक्शा चालाक रविन्द्र सफाई की सलाह पर मारा भी जाएगा। हाँ कहीं “अतिथियों” की भावना बेन को ठेस ना पहुंचे इसलिए आप अपराधियों का मजहब नहीं होता का जाप भी जरूर कीजिये। सुनना अच्छा लगता है, “अतिथि देवो भवः” !